कौटिल्य के युद्ध दर्शन/सेना का स्वरूप/युद्धकला संबंधित विचार/गुप्तचर व्यवस्था
कौटिल्य के युद्ध दर्शन ~ प्रसिद्ध दार्शनिक एवं कूटनीतिक आचार्य कौटिल्य ने अपने ग्रंथ "अर्थशास्त्र" में युद्ध दर्शन एवं मौर्यकालीन सैन्य पद्धति का सूक्ष्म एवम महानतम विश्लेषण प्रस्तुत किया है उसमें कौटिल्य ने सैन्य दुर्ग , युद्धकला, दूत एबं गुप्तचर व्यवस्था के साथ ही अंतरराज्यीय संबंध और कूटनीति का वर्णन किया है
कोई भी क्षेत्र आचार्य कौटिल्य से अछूता नहीं रहा है। कौटिल्य की विलक्षण प्रतिभा से मुग्ध होकर डॉ s c सरकार ने लिखा है कौटिल्य में स्टालिन का प्रजातंत्र , चर्चिल का साम्राज्य बाद, हिटलर की कुशलता, विल्सन का आदर्शवाद तथा चाग की देशभक्ति एक साथ विधमान थी।कौटिल्य के युद्ध दर्शन इस प्रकार से है -
1 सेनानायक एबम सैन्य संघठन संबंधित विचार ~
आचार्य कौटिल्य ने चतुरन बाल की प्रधानता होते हुये भी सहायक बलो के रूप में चार अन्य बलो का उल्लेख किया साथ ही कौटिल्य ने सेना के छः भाग बताये है।
मौर्य सेना का स्वारूप
1 चतुरन बल
1 पैदल सेना
2 अश्वरोही सेना
3 गज सेना
4 रथ सेना
2 सैन्य निर्माण के आधार पर बल
1 मॉल बल (स्थायी सेना)
2 भृतक बल (अस्थायी सेना)
3 श्रड़ी बल (ब्यापारी शेडी निर्मित)
4 मित्र बल (मित्र देश की सेना)
5 अमित्र बल (विजित सत्रु सेना से निर्मित)
6 आटविक बल (जंगली जातियों से निर्मित)
3 सहायक बल
1 विष्टि बल (रशद व परिबहन हेतु )
2 नौ बल (नाविक बेड़ा)
3 देशिक बल (मार्गदर्शन एवम पेट्रोलियम हेतु )
4 चर बल (गुप्तचर)
2 सैन्य नियुक्ति, बेतन एबं सैन्य प्रशिक्षण सम्बन्धी विचार -
कौटिल्य ने क्षत्रिय वर्ग को सेना के लिए सर्वश्रेष्ठ माना लेकिन आवश्यकता को देखते हुए वीर पुरुषों से युक्त बैश्य या क्षुद्र की सेना में भर्ती को उत्तम माना इस काल मे सैनिकों के बेतन की समुचित व्यवस्था थी। कौटिल्य ने सेनानायको , सैनिकों के प्रशिक्षण के साथ ही अशवो एवं हाथियों को भी प्रशिक्षण देने को कहा।
3 अस्त्र शास्त्र सम्बन्धी विचार -
कौटिल्य ने अस्त्र शास्त्र सम्बन्धी विचार चल, स्थिर, रक्षात्मक शास्त्रो का उल्लेख किया है।
शस्त्रास्त्र दो पकार के होते है -
1 आक्रमनात्मक ये भी do प्रकार ke होते है -
a) चल ये 17 प्रकार ke होते है जिसमे से ताल वृत्त ,चक्र, देवदण्ड, तलबार, भाले, धनुष, वान कुछ है।
b) स्थिर ये10 प्रकार ke होते है जिसमे सर्वतोभद्र(चारो तरफ पत्थर की वर्षा करने बाला यंत्र) , सन्धती (आग बुझाने वाला यंत्र), धातीआदि है।
2 सुरक्षात्मक यह चार प्रकार के होते हे-
a) लोहजाल
b) लौहपद
c) लौहकवच
D) शिरस्त्राण
4 दुर्ग एवं शिविर निर्माण सम्बन्धी विचार -
कौटिल्य ने सामरिक महत्व के चार प्रकार के दुर्गो को महत्वपूर्ण माना।
1) औदक दुर्ग- जो चारो ओर पानी से धीरा हो तथा टापू की भांति दिखाई दे।
2) पर्बत दुर्ग - जो बड़े बड़े पत्थरो की दीवारों से पहाड़ो पर बना हो।
3) धान्वन दुर्ग- मरुस्थल मर स्थित हो।
4) वन दुर्ग- जो काँटेदार झाड़ियों और दलदल से धीरा हो।
5 सतगुनी नीति - कौटिल्य ने विदेश सम्बन्धो के छः प्रकार की नीतियां बतायी है जो निम्न प्रकार हे -
1 संधि - दो राज्यों के मध्य कुछ शर्तों के साथ मेल।
2 विग्रह - सत्रु राज्य के विरुद्ध कूटनीति व विरोध।
3 आसन - तटस्थता की नीति।
4 यान - आक्रमण की नीति।
5 संक्षय - शक्तिशाली शासक का संरक्षण प्राप्त करना।
6 द्वेधिभाव - सन्धि ब्रिग्रह का एक साथ प्रयोग।
6 चतुर्यगुण नीति - चतुर्यगुण नीति का पालन करने के लिए निम्न प्रकार बताए हे जो इस प्रकार है -
1 साम- आपसी वार्ता द्वारा विरोधी से मित्रता (समझना बुझना)।
2 दाम - अर्थ या धन प्रलोभन द्वारा शत्रु पछ के असंतुष्ठो को अपने पक्ष में करना।धन देकर संतुष्ट करना।
3 भेद - फूट डालकर शत्रु को कमजोर करने की विधि।
4 दण्ड - शत्रु का गमन करना अंतिम विकल्प है (बल प्रयोग)।
7 युद्ध भेद और युद्धकला सम्बन्धी विचार - कौटिल्य ने युद्ध के तीन प्रकार बताये है जो इस प्रकार है-
1 प्रकाश युद्ध - क्षत्रिय धर्मानुसार उचित और नैतिक उपायो से समस्त समाज का समर्थन पाकर किया जाने वाला युद्ध।
2 कूट युद्ध - छल, कपट, युक्त, नैतिकता रहित, कुटनीतिक युद्ध जो गुप्त रूप से शत्रु को नष्ट करने हेतु लड़ा जाता है।
3 कुस्नी युद्ध - विना हथियार और सैन्य वल का प्रयोग किये विना लड़ा जाने वाला युद्ध कौटिल्य के अनुसार गुप्तचर बिष व औषधि के प्रयोग से शत्रु का विनाश करना कुस्नी युद्ध कहलाता है।
8 गुप्तचर व्यवस्था - ये दो प्रकार के होते है-
a )संस्था गुप्तचर (राज्य के अन्दर काम करने वाले)- कौटिल्य ने राज्य की सुरक्षा और युद्ध मे शत्रु की व्यवस्था को पता करने के लिए गुप्तचर व्यवस्था को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया।
1 काप्टिक
2 उदास्थित
3 गृहपतिका
4 वैदेहक
5 तापस
b )संचार गुप्तचर (राज्य के वाहर काम करने वाले ) -ये भी चार प्रकार के होते है जो निम्न है-
1 सत्री - इस प्रकार के चर राज्य की ओर से जीवन यापन का खर्च व्याप्त करने थे।ये परम् साहसी और अपनी जान जोखिम में डालकर काम करने की मनसा वाले ही होते थे। इन्हें विलक्षण और अंधविश्वास, जादूगरी, इंद्रजाल, पशुपक्षियों के बोलने का अर्थ व विचार करना ।साथ ही मनुष्य को भूण का अध्ययन करया जाता था इन्हें राज्य की ओर से परीक्षण दिया जाता था ।
2 तीक्ष्ण- निडर व साहसी योद्धा जिन्हें जीवन का लोभ न करने वाले राज्य के स्थायी निवासी और राज्य पर पूर्ण निष्ठा रखने वाले को तीक्ष्ण कहा जाता है।
3 रसद- रसद ऐसे चर होते थे कि क्रूर, आलसी, वहरूपिय, स्वजनों व स्नेह नही करते थे। वे लोग हलवाई, रसोई, नहलाने वाले,विस्तर लगने वाले, नई,धोबी आदि के रूप में कार्य करने वाले होते थे।ये चर इन सेसेवा के अंतर्गत रस व विष को सम्बन्धिक व्यक्तियों को दे सकते थे।
4 भिक्षुकी- इसके अंतर्गत कई प्रकार की महिलाओं की सेवा ली जाती थी। प्रथम परिव्राजिका श्रेणी, दूसरी वैश्या की (रूप जीवा श्रेणी)थी।
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ReplyDeleteThank you for this
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